‘उड़ान'
उस पंछी से ना थे ख्वाब कभी
जा नभ में पंख बिछाने के
ना चाह कहीं थी सीने में
चंदा के ठंडी छाओं की
हम ख्वाब संजोते हैं
कितने ही ---
सूरज की जाती किरणों से
सतरंगी नभ की चुनरी में
काश के पंछी से कह पाते
की उड़ने में वह बात नहीं
जो बात है नभ को जीने में
क्या समझेगा वह इस बात को ..
क्यूंकि ना भाता उसको ठहराव कभी
जीवन उसका ‘बदलाव’ से है
नभ की सतरंगी छाओं से है
सोचे तो---
अपना जीवन भी उसके आकाश सा है
दुःख की सुख में सुख की दुःख में
अपनी भी छाओं और धुप भी है
वह पंछी 'उड़ते -उड़ते' ही
वह पंछी 'उड़ने' से ही
अपनी पहचान बनाता है
हम अपनी सी पहचान लिए
उड़ने की कोशिश करते हैं
झुट्लाते हैं उस कोशिश को
कह कर की
हम जैसे हैं --'बेह्तर है'
क्यूंकि उड़ने से डरते हैं
ठहराव जिसे हम कहते थे
थी शाख वह एक तन्हाई की
पंछी उड़ता ही रहता है
अनहद है आकाश सदा
आकाश अथाह है उड़ने को
पर खुलने की देर ही है …